पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् || 21||
पृथक्त्वेन–असंबद्ध; तु–लेकिन; यत्-जो; ज्ञानम्-ज्ञान; नाना-भावान्–अनेक प्रकार के अस्तित्त्वों को; पृथक्-विधान-विभिन्न; वेत्ति-जानता है; सर्वेषु समस्त; भूतेषु–जीवों में; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानो; राजसम्-राजसी।
BG 18.21: जिस ज्ञान द्वारा कोई मनुष्य भिन्न-भिन्न शरीरों में अनेक जीवित प्राणियों को पृथक्-पृथक् और असंबद्ध रूप में देखता है उसे राजसी माना जाता है।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अब राजसी ज्ञान के संबंध में बता रहे हैं। राजसी ज्ञान से परिपूर्ण जीव संसार को भगवान के साथ संबद्ध हुए नहीं देख पाता अपितु वह प्राणियों को उनके जातिगत भेदभाव के साथ वर्ग, पंथ, धर्म, राष्ट्रीयता आदि के आधार पर अनेक के रूप में देखता है। इस प्रकार का ज्ञान मानव समाज को कई अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करता है। जब ज्ञानों का एकीकरण हो जाता है तब यह सत्त्वगुणी कहलाता है और जब ज्ञान विभाजित हो जाता है तब इसे रजोगुणी कहा जाता है।